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अक्षो॒ न च॒क्र्योः॑ शूर बृ॒हन्प्र ते॑ म॒ह्ना रि॑रिचे॒ रोद॑स्योः। वृ॒क्षस्य॒ नु ते॑ पुरुहूत व॒या व्यू॒३॒॑तयो॑ रुरुहुरिन्द्र पू॒र्वीः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

akṣo na cakryoḥ śūra bṛhan pra te mahnā ririce rodasyoḥ | vṛkṣasya nu te puruhūta vayā vy ūtayo ruruhur indra pūrvīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अक्षः॑। न। च॒क्र्योः॑। शू॒र॒। बृ॒हन्। प्र। ते॒। म॒ह्ना। रि॒रि॒चे॒। रोद॑स्योः। वृ॒क्षस्य॑। नु। ते॒। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। व॒याः। वि। ऊ॒तयः॑। रु॒रु॒हुः॒। इ॒न्द्र॒ पू॒र्वीः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:24» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सूर्य और पृथिवी का कैसा वर्त्ताव है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) वीर पुरुष (पुरुहूत) बहुतों से आदर किये गये (इन्द्र) राजन् ! जैसे (ते) आपके (मह्ना) महत्त्व से (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (पूर्वीः) प्राचीन (वि, ऊतयः) विविध रक्षण आदि क्रियायें (चक्र्योः) पहियों की (अक्षः) धुरी के (न) समान (प्र, रुरुहुः) अच्छे प्रकार प्रकट होवें और हे (बृहन्) महान् (वृक्षस्य) वृक्ष की बढ़वार (नु) जैसे वैसे (ते) आपकी (वयः) अवस्था (रिरिचे) प्रकट होती है, उसको सब लोग जानें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पहियों की धारण करनेवाली धुरी वृक्ष की शाखाओं के समान बढ़ती है और अन्तरिक्ष में स्थित होती हैं, वैसे सूर्य के चारों ओर सम्पूर्ण भूगोल घूमते हैं और वैसे ही न्याय के मार्ग से प्रजायें चलती हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्यपृथिव्योः कीदृशं वर्त्तमानमस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे शूर पुरुहूतेन्द्र ! यथा ते मह्ना रोदस्योर्मध्ये पूर्वीर्व्यूतयश्चक्र्योरक्षो न प्र रुरुहुः। हे बृहन् ! वृक्षस्य नु ते वया रिरिचे तं सर्वे जानन्तु ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अक्षः) (न) इव (चक्र्योः) (शूर) (बृहन्) महान् (प्र) (ते) तव (मह्ना) महत्त्वेन महिम्ना (रिरिचे) अतिरिणक्ति (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (वृक्षस्य) (नु) (ते) तव (पुरुहूत) बहुभिः पूजित (वयाः) (वि) (ऊतयः) रक्षणाद्याः क्रियाः (रुरुहुः) प्रादुर्भवेयुः (इन्द्र) राजन् (पूर्वीः) प्राचीनाः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा चक्राणां धर्त्र्यो धुरो वृक्षस्य शाखा इव वर्धन्तेऽन्तरिक्षे तिष्ठन्ति तथा सूर्याभितः सर्वे भूगोला भ्रमन्ति तथैव न्यायस्य मार्गेण प्रजाश्चलन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा चाकांना धारण करणारा अक्ष असतो व वृक्षाच्या फांद्या पसरलेल्या असतात तसे सर्व भूगोल अंतरिक्षात सूर्याभोवती फिरतात. तसेच न्यायाच्या मार्गाने प्रजा चालते. ॥ ३ ॥